वकत
वकत की सुई कभी रुकती नहीं ,
इसकी जंजीरे कभी टूटती नहीं ,
अपने साथ सबको भगाती ये ,
हमारे ख़यालो को कहि और दभनाती ये।
न जाने किस जगह, कोनसे पहर,
कैसे कैसे गोते लगवाती इसकी लहर,
सोचते कुछ और करवाती कुछ इसकी केहर।
जिसके सहारे छुपते थे हम , वही छुप गया है आज।
जिसके साथ चलते भूल गए खुद को, वही ठहर गया है आज।
ये जितना दूर है , उतना ही पास भी ,
ये जितना कुरुर है , उतना ही दास भी ,
व्या करू कैसे इसकी नियत , नियति भी डरती जिसे।
देखो , परखो , सम्भालो इसको ,
वकत ने दिया है वकत तुमको ,
तोफे में दिया है आइना हमको ,
नहीं होते नसीब सबके ऐसे, समझो इसको , समझो इसको।
अर्ची सौरभ
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